The world we have created is a product of our thinking; it cannot be changed without changing our thinking. -Albert Einstein

Tuesday 18 November 2014

What I want....


I saw a mountain,
I saw its huge snow capped top
I want to be there, reach that point
I want to never stop
I want to run, I want to shout
I want to scream my way out
I want to sing, sing as loud as my lungs would allow
I want to draw, doodle, scribble and tear those pages or admire the “objects” I penned down
I want to dance, dance like mad endlessly in joy or in gloom
I want to capture the small things be it the raindrops in my palms, the smile of a baby or a full moon
I want to ooze out every bit of mine through every channel possible
I want to feel my every pulse; I want to feel my every moment alive
I want to feel my racing heart, I want to get every possible vibe
I want to risk it all for once
I want to get drenched in all colors
I want to wander aimlessly on roads
I want to be instinctive and spontaneous
Why do I need to think so much?
Why can’t I run towards the mountain top without being scared?
What is stopping me? Is it the fear of falling or the fear of failing or just the fear of people pulling me down?
I want to do something extra ordinary in my own way.
Something to proclaim that this particular action made my life different
I want to be out of the league.
I want to fly. I want to embark on a meaningful journey
I want to cut through the web of expectations, the common perception of success as perceived by the major lot.
I want to reflect and smile back each time I think about my past
I want to live some passion as long as it can last
I want to forget the world around me.
 I want to be in a dream, I want to live that dream
I want to laugh with all my might I want to beam
I want to float; I want to swim in the pool of my thoughts,
How precious those thoughts are I wonder
I want to gaze, I want to stop by, observe and retrospect
People, emotions, life, situations and every aspect
I want to discover and explore myself and my surroundings, get lost in a new city or in a new place within an old known city
I want to dive, dive deep in a lake of chilled water
I want to feel every possible emotion...including terror.
I want to unravel every angle of being a human, being me.
I want to be simple yet complex
I want to celebrate this wonderful gift called Life!


Friday 31 October 2014

Ek diya....


एक दीया उजाले का। 
एक दीया घने अँधेरे को मिटाने का। 
एक दीया भीनी गर्माहट का। 
एक दीया पूजा की थाल में सजाने का। 
एक दीया साथ निभाने का। 
एक दीये की जलावन काजल बनाने का। 
एक दीया वादे निभाने का। 
एक दीया प्रेम की सौगात का। 
एक दीया बिन बिजली रात का। 
एक दीया आस्था का। 
एक दीया विश्वास का। 
एक दीया दुआओं का। 
एक दीया पर्व बनाने का। 
एक दीया आभार का। 
एक दीया सम्मान का। 
एक दीया श्रद्धांजलि का। 
एक दीया सूर्य सा सृष्टि का। 
एक दीया अग्नि की शक्ति का। 
बस एक दीया जीवन के संचार का। 

Friday 5 September 2014

Mumbai...!!

The city of dabawallas. The city of Bollywood dreams. The city of Vada Pav. The city of chaos. The city that never sleeps. The city that rises after every fall. The city that becomes you.
But then again, Mumbai isn't a city.
Mumbai is an enigma.
The Maximum City has everything to offer, and then some more. Truly, zara hatke, zara bach ke, yeh hai Mumbai, meri jaan.
Beautiful poetry by the national award winning poet of Udaan, Satyanshu Singh

सेहर शहर पर फिर आई
शबियो मिन्टो में बीत गई
कोशिश बड़ी नींद ने की
पर पलकें उससे जीत गयीं। 

पल भर भी सोया ना था ,
पर देखो कैसे जगा शहर 
सड़को ,गलियो ,गलियारों में ,
दिन बुनने फिर लगा शहर। 

कभी ना रुकने वाली धड़कन का ,
फैला फिर शोर यहाँ 
ताल थिरकते कदमो का 
फिर से गूंजा हर ओर यहाँ। 

देखो कितने ख्वाब यहाँ ,
खुद से हर शख्स लपेटे है 
देखो शहर गोद में अपनी 
कितने शहर समेटे है। 

है तासीर समंदर की ही तो 
इस शहर ने अपनायी 
तभी तो हदो में जीने की 
फितरत है इसने पायी। 

सुबह शाम लेहरो की तरह ,
कोने लोग बदलते हैं 
जो आये घुल जाये इसमें ,
सभी इसी में ढलते हैं। 

लगन यहाँ पर सस्ती है ,
उम्मीद मुफ्त में बटती है। 
और हौसले की धुन ,
नहीं कभी होंठो से हटती है। 

अपने अरमानो को यूँ ,
खुद में हर शख्स लपेटे है 
देखो शहर गोद में अपनी 
कितने शहर समेटे है।

दिन भर की आपा धापी ही 
वजह जश्न की होती है। 
रात आये त्यौहार लिए ,
जब सारी दुनिया सोती है। 

कैसे औरों को बतलाएं ,
शहर हमारा कैसा है ?
किन लफ्ज़ो में समझायेंं
यह ऐसा है ,यह वैसा है। 

आकर खुद देखो तो शायद 
थोड़ा इसको जान सको 
आकर इसके हो जाओ 
तभी शायद पहचान सको। 

ज़िंदादिली यहाँ कैसे 
खुद'से हर शख्स लपेटे है 
देखो शहर गोद में अपनी 
कितने शहर समेटे है।

Ps-You can also watch the video of the same by going on the link given below.It is beautifully filmed.
https://www.youtube.com/watch?v=Q1EP1lFpmaw#action=share



Saturday 30 August 2014

Nazariya....



चाहें कितने भी गम के बादल लहाएं ,
फिर भी मुस्कुराने के पैमाने कम ना हो पाएं।
कोई' गम में मुस्कुराता है
तो कोई ख़ुशी में रोता है।

है सुलभ सहज ये बात निराली ,
आदमी मर के भी जिन्दा रहता है
और जिन्दा रह कर भी मर जाता है।
एक स्वालंबी नारी को कभी मिसाल
तो कभी बदचलन समझा जाता है।

इस अजब-गज़ब सी दुनिया में ,
होते हैं नज़रिये भिन्न भिन्न
अँधा भी पलके झपकाता है
बधिर भी राग गा जाता है।

इचाशक्ति है संबलता का सारांश,
दृढ़ता है मजबूती का जोड़
चाहे कितने हो विघ्न कभी
नजरिया हर मुश्किल का तोड़।


Saturday 9 August 2014

Bay parwai...


है अजब कहानी  ,गज़ब इस दिल का फरमान ,
है दिल तुझ पर इस कदर मेहरबान।
तू जानता है पर कद्र नही
तेरे  झूठे वादों का कोई असर नही।

है डगमगा रहा मेरा विश्वास
सब्र का बाँध ले आखिरी सास
मैं न खोउंगी ज्यादा कुछ
बस थी तेरी रज़ामंदी की आस।

है कोई ना गिला ना शिकवा तुझसे ,
मिले हर ख़ुशी और दुआयें सबसे।
बस एक बार पलटकर देख लेते ,
मेरी आँखों  में बसे तेरे किस्से।

तू समझ न पाया मेरी कीमत
है कोई न गम ,तुझे मेरी बरकत।
है अजब कहानी ,गज़ब इस दिल का फरमान ,
फिर भी हमेशा रहेगा यह दिल तुझपर मेहरबान। 

Sunday 15 June 2014

Taruvar ki chaya




तेरे मोहपाश में बंधी हूँ मैं ,
मन भटक रहा क्यों गली गली
इस द्वंद का हल न निकल पाया
तू है अनजान ,तू है अभिग्न
तू क्यों मुझसे है रुस्वाया ?

मेरे हृदय में छिपा बस रूप तेरा
इस दर्पण को तू न देख पाया
है आँखो में तस्वीर तेरी
विस्मित हूँ मै ,पर मैंने पाया

है यही वास्त्विक ,है यही सत्य
तू मुझमे है अंदर समाया
एक बार तो झांक मेरे मन में
तू है यहीं ,जैसे मेरा साया।

है प्रेम मेरा पवन पवित्र
तू क्यों ना यह समझ पाया ?
एक बार उठा दे नज़रो से पर्दा
तू मेरे  लिए तरुवर की छाया 

Sunday 11 May 2014

Aarz kiya hai....

I tried learning a little bit of Urdu lately.I had an intense desire to learn this beautiful language and came up with a few couplets by myself.

चेहरे पर शराफत का नक़ाब रहने दे मुल्तज़ा ,
बेपर्दा हो गये तो बेआबरू हो जायेंगे।

भले ही मुलाकात मुख़्तसर सी हो ,आप से हामारी शनासाई मुददत से हो
मिलना मिलाना तो बस एक बहाना है ,आप से आखिर हमरी हमनवाई तो हो।

कभी वह पर्दादारी ,कभी वो दहन्दरी
है क्या शख्सियत आपकी ,हम पहचान न सके।

इन परिंदो की सरहदें क्या ,इनपर कोइ न पाबंदी है
है खुला ग़रदूँ इनका मैदान ,और न तलख रुसवाई है।

वो गरम मिजाज़ ,आलम -ए -वफा  कभी हो जाते हैं
पर हमारे इश्क़ की ठंडी तासीर ऐसी ,की  चाह कर भी खफा न हो पाते हैं।

Monday 5 May 2014

yeh ishq nahi asaan...!!!


यह प्यार न था ,बस था एक भ्रम 
है इश्क़ में ना जाने कितने गम। 
तुम्हे खबर ना है क्या चीज़ है यह ,
यह इश्क़ लड़खडादे बढ़ते कदम। 

कभी किसी सयाने शायर ने 

बड़ी कुर्बत से था किया बायाँ ,
की यह इश्क़ नहीं आसान 

बस इतना समझ लीजिये ,एक आग का दरिया है और डूब के जाना है। 

शायर की बात बेशक सायानी ,पर था वह असल मैं ज्ञानी। 
यह इश्क़ है भाप ,नही यह गरम पानी,
जिसकी गर्मी से जल जाती है खाल ,
और छोड़ जाती है एक वीभत्स निशानी। 

Sunday 27 April 2014

Mujhe udne do...!!


है गगन चूमता यह आसमान 
मुझे उड़ने दो ,है उड़ने की चाह। 

मेरी कल्पनाओं के घोड़े हो रहे हैं बेलगाम ,
ढूंढने दो उन्हें उनकी राह। 



दूर किसी सुनसान टापू पर 
है कोई अनजान सा घर ,

मेरे स्वप्न में आया है कोई 
कौन है वह ,मुझे ना कोई खबर। 

जब नींद टूटी मेरी ,
स्वप्न रह गया अधूरा 
पर मैंने अपने आप को 
फिर आइने में घूरा। 

एक भीनी सी मुस्कान थी मुख पर 
थी आँखों में एक नयी चमक 
जो मन भटक रहा था दर -दर 
हो गया स्थिर बस उसी शंड। 


मुझे उड़ने दो ,है उड़ने की चाह 
मेरे पाँव नहीं टिकते ज़मीन पर 

करनी है आसमानों की सैर 
आज स्वछंद हैं कल्पनाएँ छुपी भीतर। 

Thursday 24 April 2014

Mahanta...


वो देख रही थी उसे पर किस भाव से
उसे स्वयं नही था ग्यात ,
इस सोच में डूबी थी वो
है यह कैसी सौगात।

कर्तव्य था,या था वह मोह
समझ नहीं पा रही थी वो।
जिस व्यक्ति के पास बैठी  थी
उसी से  अनजान थी वो।

उसे याद आ गया हर एक वो शंड
जब जब उसका हुआ था तिरस्कार ,
हर पल जब वो समझाती थी खुद को
उसके नहीं ऐसे संस्कार।

है समाज की विवशता या कर्तव्यनिष्ठा ,
आज भी वो अभिग्न है इस बात से।
पति धर्म का त्याग करे
और लिप्त हो जाये वैराग्य से।

प्रेम की आशा न उसे पहले थी न है  आज
एक नारी की महानता है देना ,
देना बिना अपेक्षा
सिर्फ नहीं यह लोक -लाज।

है पनप उठी उसमे उदासीनता
घृणा की परते भी हो गयीं हैं ओझल ,
यह मोह नहीं ,कर्त्तव्य भी न था
यह थी सिर्फ  एक स्त्री की महानता।

Thursday 3 April 2014

Kaun hu main?



यह काली स्याही सी मेरी परछाई
कौन हू में ,क्या है यह मेरा साया ?
किस ओर चला मेरा अंतर्मन
कभी ग्रीष्म तो कभी छाया।

एक बार पलटकर देखा मैंने ,
अपने प्रतिबिंब को बड़े गौर से 
कौन हूँ मैं ,यह रूप सजग
खुद से भिन्न मेरी काया।

जब देखा मैंने अपनी आँखों में
वह चमक ,वह अश्रु  की धारा
कौन हूँ मैं ,स्वयं से अनजान
कैसी उलझी यह मधुमाया।

दूर कहीं एक दो राहे पर
मिल जाऊँ मैं अपने आप से अगर
है पूर्ण विशवास मैं पहचानुगी
क्यों मेरा मन है रुस्वाया।

Saturday 18 January 2014

Yaad....



दिन से रात गुज़र जाती है
पर तेरी ना चाहते हुए भी याद मेरी नीरस से  जीवन को संगीन बना देती है।
वो तेरी बातों को याद करके मेरा हलके से मुस्कुराना
मेरी तन्हाई के परदो से जैसे रोशिनी का छुप कर आना।
वो तेरी आवाज़ का अंदाज़ और तेरा मुझे पुकारना
मेरी  अपनी तक़दीर से रुसवाई पर जैसे सवाल उठाना।
वो तेरी मुझे  हर  बात  में, हर  समस्या में धैर्य बांधना
मुझे मेरे अपनो की रुसवाई भुला देती है।
दिन से रात गुज़र जाती है
पार तेरी याद ना जाने क्यों ज़ेहन में आ जाती है,
मुझे कुछ कर जाने का साहस दिला जाती है
और मेरे नीरस सॆ जीवन को जैसे  दिशा मिल जाती है।