The world we have created is a product of our thinking; it cannot be changed without changing our thinking. -Albert Einstein

Monday 28 September 2015



भीड़ में साथी अक्सर मिल जाते हैं
सफर में हमराही टकरा जाते हैं
सर उठा के देखा जब मैंने जमात में
कोई गैर ना मिला अनजाने ही साथ में।

फूलों की लाज ,सुगंध भरी
ले बुन लाया में एक माला
बस तू दिखी उस मेह्खाने में
और खींचा  चला आया में मधुशाला।

हाथों में लिये जज़्बातों की कतरन
बेहेकतें हैं जब जज़्बात ,ये हाथ भी ना जाने क्यों बेहक जातें हैं।


लम्हे ,घड़ियाँ ,साल तो कभी अरसे निकल जाते हैं
कहने को लफ्ज़ नहीं रहते
पर आँखों की ज़ुबाँ ही कुछ अलग होती है
कहते हैं अल्फाज़ो से ज्यादा बातें आँखों से होती हैं।


Friday 4 September 2015

Ek suni raat...


एक सूनी रात का अँधेरा था ,
रेशम सी चाँद की रौशनी छन के आ रही थी जैसे। 
कोने में जल रही भीनी लौ की नर्माहट ,
तुम्हारे पास होने का एहसास  सा  दिला  रही थी। 
 रातेँ तो कई बीती हैं पहले भी 
पर वो रात खासी अधूरी थी ,
आँखों में आज हलकी नमी थी ,दिलों में दूरी थी। 
उस सुनी रात के अंधेरे में ,
चाँद भी ढलने को आ रहा था अब। 
नींद की एक  छोटी सी बूँद भी आँखों में गिरने ना पायी थी 
झरोखे से झाका तो चाँद को भी अधूरा पाया।
 झिलमिलाती रौशनी में अपने आप को समझाया , कभी हम भी पूरे हुआ करते थे। 
बस तुम और तुम्हारी याद सताये जा रही थी 
वो भी क्या रात थी ,वो भी क्या याद थी।