The world we have created is a product of our thinking; it cannot be changed without changing our thinking. -Albert Einstein

Thursday 24 April 2014

Mahanta...


वो देख रही थी उसे पर किस भाव से
उसे स्वयं नही था ग्यात ,
इस सोच में डूबी थी वो
है यह कैसी सौगात।

कर्तव्य था,या था वह मोह
समझ नहीं पा रही थी वो।
जिस व्यक्ति के पास बैठी  थी
उसी से  अनजान थी वो।

उसे याद आ गया हर एक वो शंड
जब जब उसका हुआ था तिरस्कार ,
हर पल जब वो समझाती थी खुद को
उसके नहीं ऐसे संस्कार।

है समाज की विवशता या कर्तव्यनिष्ठा ,
आज भी वो अभिग्न है इस बात से।
पति धर्म का त्याग करे
और लिप्त हो जाये वैराग्य से।

प्रेम की आशा न उसे पहले थी न है  आज
एक नारी की महानता है देना ,
देना बिना अपेक्षा
सिर्फ नहीं यह लोक -लाज।

है पनप उठी उसमे उदासीनता
घृणा की परते भी हो गयीं हैं ओझल ,
यह मोह नहीं ,कर्त्तव्य भी न था
यह थी सिर्फ  एक स्त्री की महानता।

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