भ्रमाण्ड जहाँ ,विस्तार वहाँ
थी द्वापर युग की यह नारी।
शालीन थी वो ,मूरत अत्यंत सुन्दरता की ,कहलाती थी वो पांचाली।
द्रौपदी जनि ,हुई लौ से उत्पन्न
आई थी करने कुरु वंश का नाश।
भर के औरत्व की आभा सारी ,पांच पतियों की थी प्यारी,
परन्तु पतियों ने बाटी इसकी लज्जा सारी।
सरेआम हुआ था चीरहरण ,
कान्हा की परम सखी ,ली कान्हा की शरण।
मन से था प्रेम अर्जुन से अपार ,
कर दिया था उसने कर्ण को इंकार।
रंग रूप और अभिमान तो थे उसके चरित्र के बस कुछ अंश ,बनी पांच पुत्रो की वह माता
अनसुनी सी ,अनकही सी थी उसकी गाथा।
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