यह काली स्याही सी मेरी परछाई
कौन हू में ,क्या है यह मेरा साया ?
किस ओर चला मेरा अंतर्मन
कभी ग्रीष्म तो कभी छाया।
एक बार पलटकर देखा मैंने ,
अपने प्रतिबिंब को बड़े गौर से
कौन हूँ मैं ,यह रूप सजग
खुद से भिन्न मेरी काया।
जब देखा मैंने अपनी आँखों में
वह चमक ,वह अश्रु की धारा
कौन हूँ मैं ,स्वयं से अनजान
कैसी उलझी यह मधुमाया।
दूर कहीं एक दो राहे पर
मिल जाऊँ मैं अपने आप से अगर
है पूर्ण विशवास मैं पहचानुगी
क्यों मेरा मन है रुस्वाया।
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