The world we have created is a product of our thinking; it cannot be changed without changing our thinking. -Albert Einstein

Friday, 6 April 2012

बैठे बैठे क्यूं गम हो जाती  हूँ?
उन गुज़रे लम्हूं के खयालूँ में क्यूं डूब जाती हूँ?
कुछ भूली यादूं का ताना बना ऐसा
की कुछ यूँ बेखबर हो जाती हूँ....
सोचती हूँ....
दिल की अगर एक दूकान होती,तो उसमे हमारा दिल भी बिकता
पर दिल है ऐसा कि एक बार टूटे तो दूकान में न दिखता
चाहे जितने मरहम लगा लो फिर वह बात न आती
दिल की पहले जैसी कीमत न रह जाती
उस दिल को लोग दिल ना कहते,बिखरे टुकड़ो का गठन बन कर रह जाता
कभी वह भी एक खूबसूरत दिल हुआ करता जो दुकानों में सजता
पर आज किसी और की गलती की सज़ा ये दिल क्यों इस कदर भुगतता?
की हर  इलाज बेअसर लगता,इस टूटे दिल का ज़ख्म कभी न भरता



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